णिजन्त प्रकरण

  


णिजन्त प्रकरण (प्रेरणार्थक क्रिया)


तट्प्रयोजको हेतुश्च - प्रेरणार्थक में धातु के आगे 'णिच्प्रत्यय का प्रयोग होता है। जब कर्त्ता किसी क्रिया को स्वयं ना करके किसी अन्य को करने के लिए प्रेरित करता है तब उस क्रिया को 'प्रेरणार्थक क्रिया' कहते है।

प्रेरणार्थक क्रिया का उदाहरण:

  • प्रवर: प्रखरं ग्रहं प्रेषयति। (प्रवर प्रखर को घर भेजता है।)
यहाँ पर प्रवर स्वयं घर ना जाकर प्रखर को घर जाने के लिए कहता है। अत: 'प्रेषयति' प्रेरणार्थक क्रिया हुई।
प्रेरणार्थक क्रिया में 'णिच्' का सिर्फ '' शेष रहता है। '' और '' का लोप हो जाता है। णिजन्त धातु प्राय: उभयपदी होते है। लट्, लोट्, लङ्ग्, और विधिलिङ्ग् - इनमें णिजन्त के रूप 'भू' के सामान होते है। 'णिच्' होने से धातु के अंतिम स्वर और उपधा में 'आकार' की वृध्दि होती है। जैसे :-
  • प्लु + णिच् = प्लावि
  • चल् + णिच् = चालि
  • वह् + णिच् = वाहि
  • श्रु + णिच् = श्रावि
  • क्र + णिच् = कारि
  • पच् + णिच् = पाचि
णिच् प्रत्यय होने से धातु के उपधा लघु स्वर का गुण हो जाता है। जैसे :-
  • लिप् + णिच् = लेपि
  • मुच् + णिच् = मोचि
  • म्रष् + णिच् = मर्षि
  • दुह् + णिच् = दोहि
  • सिच् + णिच् = सेचि
  • द्रश् + णिच् = दर्शि
जिन धातुओं के अंत में '' होता है, उसमे 'प्' जोड़कर तब 'अय्' जोडा जाता है। जैसे : -
  • दा + प + अय् + ति = दापयति
  • स्था + प + अय् + ति = स्थापयति
णिच् प्रत्यय होने पर 'अमन्त' और 'घटादि' धातुओ के अन्त्य स्वर की और उपधा अकार की वृध्दि नहीं होती है। जैसे :-
  • गम् - गमयति
  • दम् - दमयति
  • नम् - नमयति
  • व्यथ् - व्यथयति
  • त्वर् - त्वरयति
  • रम् - रमयति
  • शम् - शमयति
  • घट् - घटयति
  • जन - जनयति
  • ज्वल् - ज्वलयति
णिच् प्रत्यय होने से 'जृ' और 'जागृ' धातुओं के स्वर का गुण होता है। जैसे :-
  • जृ - जरयति
  • जागृ - जागरयति
'हन्' धातु के स्थान पर घात् , 'दुष्' धातु के स्थान पर द्वष्, और अध्ययनार्थक '' धातु के स्थान पर 'आप्' हो जाता है। जैसे :-
  • हन् - घातयति
  • अधि + इ = अध्यापयति
चित्त-विराग अर्थात चित्त की अप्रसन्नता बोध होने पर विकल्प से होता है। जैसे :-
  • क्रोध: चित्तं दोषयति वा। ( क्रोध चित्त को अप्रसन्न करता है। )
णिच् प्रत्यय होने से 'प्री' और 'धू' धातु के आगे विकल्प से 'न्' होता है। जैसे :-
  • प्री - प्रीणयति / प्राययति
  • धू - धूनयति / धावयति
पानार्थक 'पा' धातु के आगे 'य्' और रक्षार्थक 'पा' धातु के आगे 'ल्' होता है। जैसे :-
  • पाययति / पालयति
यदि कर्त्ता अन्य निरपेक्ष होकर भय और विस्मय उत्पन्न करे तो णिच् प्रत्यय के परे रहने से 'भी' धातु के स्थान में 'भीष्', और 'स्मि' धातु के स्थान में 'समाप्' होता है और आत्मनेपद् होता है। जैसे :-
  • सर्प: शिशुम् भीषयते।
  • पुरुष: सर्पेण शिशुम् भाययति।
'' धातु (to read ) इसके पहले 'अधि' उपसर्ग निश्चित रूप से रहता है। 'क्री' (to sell / to buy ), 'जि' (to conquer ) इन धातुओं में णिच् प्रत्यय जोडने पर '' का '' हो जाता है और '' हो जाने पर इनमें '' जोड़कर पीछे 'अय्' जोडते हैं। जैसे :-
  • अधि + इ (आ) + प + अय् + ति = अध्यापयति
  • क्री + प + अय् + ति = क्रापयति
  • जि (जा ) + प + अय् + ति = जापयति

प्रेरणार्थक वाक्यों में कितने कर्त्ता होते हैं?

प्रेरणार्थक वाक्यो में दो कर्त्ता होते है- एक प्रेरणा देने वाला (प्रयोजक), दूसरा क्रिया करने वाला (प्रयोज्य) । साधारणतय सकर्मक क्रिया के प्रयोज्य में तृतीया विभक्ति होती है और प्रयोजक में प्रथमा विभक्ति। जैसे -
  • प्रवरप्रखरेण ओदनं पाचयति।
यहाँ प्रवर: प्रयोजक, जिसमें प्रथमा विभक्ति। तथा प्रखरेण प्रयोज्य, जिसमें तृतीया विभक्ति है।
परन्तु सूत्र - "गतिबुद्धिप्रत्यावसानार्थ शब्दकर्माकर्मकाणामणिकर्त्ता सणौ कर्मस्यात्" में - गमनार्थक, बुद्धर्यथक, भोजनार्थक, कर्मक और अकर्मक धातुओं में द्वतीया विभक्ति होती है। जैसे -
  • राम: ग्रामं गच्छति।
  • प्रवर: प्रखरम् ग्रामं गमयति।
  • गुरुः शिष्यं धर्मं बोधयति।
"भक्षेरहिंसार्थस्यच न" में - हिंसा भिन्न अर्थ में 'भक्षि' धातु के प्रयोज्य में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे -
  • माता पुत्रेण अन्नं भक्षयति।
"नीवह्योर्न" में - 'नी' और 'वह्' धातु के प्रयोज्य में तृतीया और द्वितीया दोनों विभक्तियाँ होती है। जैसे -
  • स्वामी भृत्येन/भृत्यं भारं ग्रामं नाययति/वाहयति।
यहाँ भृत्येन में तृतीया तथा भृत्यं में द्वतीया विभक्ति है।

प्रेरणार्थक क्रियाओं की सूची - प्रेरणार्थक क्रिया के उदाहरण:

धातुणिच् प्रत्ययलट् लकारअर्थ
भूभाविभावयतिरखता है
गम्गमिगमयतिभेजता है
हन्घातिघातयतिमरवाता है
दादापिदापयतिदिलाता है
स्थास्थापिस्थापयतिरखता है
धाधापिधापयतिधरान करवाता है
मामापिमापयतिनपवाता है
गागापिगापयतिगवाता है
हाहापिहापयतिछुडवाता है
अर्पिअर्पयतिदेता है
ह्राह्रेपिह्रेपयतिलजवाता है
क्रीक्रापिक्रापयतिखरिदवाता है
जिजापिजापयतिजितवाता है
अधि इअध्यापिअध्यापयतिपढ़ाता है
रञ्ज्रजिरजयतिमारता है
रंञ्ज्रंजिरंजयतिखुश करता है
रुह्रोहिरोहयतिचढ़ाता है
जन्जनिजनयतिपैदा करता है
जागृजागरिजागरयतिजगाता है
जृजरिजारयतिपुराना करता है /
कमजोर करता है
कृकारिकारयतिकराता है
पच्पाचिपाचयतिपकवाता है

'भू' धातु के रूप (प्रेरणार्थक क्रिया) परस्मैपद

लट् लकार -

पुरुषएकवचनद्विवचनवहुवचन
प्रथम पुरुषभावयतिभावयत:भावयन्ति
मध्यम पुरुषभावयसिभावयथ:भवयथ
उत्तम पुरुषभावयामिभावयाव:भावयाम:

लोट् लकार -

पुरुषएकवचनद्विवचनवहुवचन
प्रथम पुरुषभावयतुभवयताम्भावयन्तु
मध्यम पुरुषभावयभावयतम्भावयत
उत्तम पुरुषभावयानिभावयावभावयाम

लङ्ग् लकार -

पुरुषएकवचनद्विवचनवहुवचन
प्रथम पुरुषअभावयत्अभावयताम्अभावयन्
मध्यम पुरुषअभावाय:अभावयतंअभावयत
उत्तम पुरुषअभावयम्अभावयावअभावयाम

लृट् लकार -

पुरुषएकवचनद्विवचनवहुवचन
प्रथम पुरुषभावयिष्यतिभावयिष्यत:भावयिष्यन्ति
मध्यम पुरुषभावयिष्यसिभावयिष्यथ:भावयिष्यथ
उत्तम पुरुषभावयिष्यामिभावयिष्याव:भावयिष्याम:

विधिलिङ्ग् लकार -

पुरुषएकवचनद्विवचनवहुवचन
प्रथम पुरुषभावयेत्भावयेताम्भावयेयु:
मध्यम पुरुषभावये:भावयेतम्भावयेत
उत्तम पुरुषभावयेयम्भावयेवभावयेम

'भू' धातु के रूप (प्रेरणार्थक क्रिया) आत्मनेपद

लट् लकार -

पुरुषएकवचनद्विवचनवहुवचन
प्रथम पुरुषभावयतेभावयेतेभावयन्ते
मध्यम पुरुषभावयसेभावयेथेभवयध्वे
उत्तम पुरुषभावयेभावयावहेभावयामहे

लोट् लकार -

पुरुषएकवचनद्विवचनवहुवचन
प्रथम पुरुषभावयताम्भवयेताम्भावयन्ताम्
मध्यम पुरुषभावयस्वभावयेथाम्भावयध्वम्
उत्तम पुरुषभावयैभावयावहैभावयामहै

लङ्ग् लकार -

पुरुषएकवचनद्विवचनवहुवचन
प्रथम पुरुषअभावयतअभावयेताम्अभावयन्त
मध्यम पुरुषअभावायथा:अभावयेथाम्अभावयध्वम्
उत्तम पुरुषअभावयेअभावयावहिअभावयामहि

लृट् लकार -

पुरुषएकवचनद्विवचनवहुवचन
प्रथम पुरुषभावयिष्यतेभावयिष्येतेभावयिष्यन्ते
मध्यम पुरुषभावयिष्यसिभावयिष्यथ:भावयिष्यथ
उत्तम पुरुषभावयिष्यामिभावयिष्याव:भावयिष्याम:

विधिलिङ्ग् लकार -

पुरुषएकवचनद्विवचनवहुवचन
प्रथम पुरुषभावयेतभावयेयाताम्भावयेरन
मध्यम पुरुषभावयेथाभावयेयाथाम्भावयेध्वम्
उत्तम पुरुषभावयेयभावयेवहिभावयेमहि

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