संस्कृत रस
स्यत आस्वाद्यते इति रसः'- अर्थात जिसका आस्वादन किया जाय, सराह-सराहकर चखा जाय, 'रस' कहलाता है। कहने का मतलब कि किसी दृश्य या अदृश्य बात को देखने, सुनने, पढ़ने अथवा कल्पना करने से मन में जो अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है, उसे ही रीतिकारों ने रस कहा है। रस को ‘काव्य की आत्मा', 'काव्यानंद' या ‘भाव' कहा जाता है।
आचार्य मम्मट ने अपनी सुप्रसिद्ध रचना 'काव्यप्रकाश' में 'रस' को परिभाषित करते हुए लिखा है-
"कारणान्यथ कार्याणि सहकारीणि यानि च
रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्नाट्यकाव्ययोः ।
विभावा अनुभावास्तत् कथ्यन्ते व्यभिचारिणः
व्यक्तः स तैर्विभावाद्यैः स्थायी भावो रसः स्मृतः ।"
अर्थात्- लोक में रति आदि रूप स्थायी भाव के जो कारण, कार्य और सहकारी होते हैं, वे नाटक या काव्य में होते हैं तो क्रमशः विभाव, अनुभाव और व्यभिचारीभाव कहलाते हैं और उन विभाव (आलंबन या उद्दीपन) आदि से व्यक्त वह स्थायी भाव 'रस' कहलाता है।रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्नाट्यकाव्ययोः ।
विभावा अनुभावास्तत् कथ्यन्ते व्यभिचारिणः
व्यक्तः स तैर्विभावाद्यैः स्थायी भावो रसः स्मृतः ।"
भरतमुनि ने भी इन्हीं बातों की रस पर चर्चा करते हुए कहा है-
'विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्र सनिपत्तिः।
अर्थात्- विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारिभावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।व्यवहार दशा में मुनष्य को जिस-जिस प्रकार की अनुभूति होती है, उसे ध्यान में रखकर मम्मट ने कहा है-
'रतिहसश्च शोकश्च क्रोधोरतही भयं तथा।
जुगुप्सा विस्मयश्चेति स्थायिभावाः प्रकीर्तिताः ।
यानी: रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा (घृणा) और विस्मय ये आठ स्थायी भाव हैं।जुगुप्सा विस्मयश्चेति स्थायिभावाः प्रकीर्तिताः ।
आगे मम्मट ने ही नौवें रस की आवश्यकता महसूसते हुए लिखा-
'निर्वेदस्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रसः ।
भाव दो प्रकार के होते हैं स्थायी और संचारी । स्थायी भाव दीर्घकालिक और संचारी भाव अल्पकालिक होते हैं। भावों की उत्पत्ति के कारण को ही विभाव कहा जाता है । विभाव दो प्रकार के होते हैं - आलम्बन और उद्दीपन। आलंबन से ही भावों की उत्पत्ति होती है, जबकि उद्दीपन भावों की गति बढाने का काम करता है। स्थायी भाव की जागने पर जो शारीरिक क्रियाएँ होती हैं उसे अनुभाव कहते हैं। यह अनुभाव सात्विक और कायिक हुआ करते हैं।
सात्विक अनुभाव शरीर की स्वाभाविक क्रिया है, जिसके नौ रूप होते हैं-
1. स्तंभ 2. कंपन 3. स्वर-भंग 4. वैवण्र्य 5. अश्रु 6. प्रलय 7. स्वेद 8, रोमांच 9. जुम्मा ।
स्तंभ अनुभाव से प्रसन्नता, लज्जा आदि के कारण गतिहीनता आ जाती है। वैवर्ण्य के कारण शरीर पीला पड़ जाता है या चेहरे का रंग उड़ जाता है। प्रलय से चेतनाशून्यता आती है।
कायिक अनुभाव शारीरिक अंगों का व्यापार है। जैसे भय से भागना, क्रोध से कॉपना या भला-बुरा कहना, रति में चुम्बन, शोक में सिर धुनना आदि ।
रीतिकारों ने दस प्रकार के रसों की बात कही है। रसों के मनः संवेगों और स्थायीभावों का तुलनात्मक चित्र इस प्रकार है-
प्राचीन साहित्य शास्त्र के अनुसार
रस | स्थायी भाव | रस | स्थायी भाव |
---|---|---|---|
१. भयानक | भय | ६. अद्भुत | विस्मय |
२. रौद्र | क्रोध | ७. हास्य | हास |
३. बीभत्स | जुगुप्सा | ८. शांत | निर्वेद |
४. करुण | शोक | ९. वीर | उत्साह |
५. श्रृंगार | रति | १०. वात्सल्य | स्नेह |
उदाहरणस्वरूप:
एको रसः करुण एव निमितभेदाद.....(भवभूति)श्रृंगारमेव रसनाद रसमामनामः.......(भोजराज)
-तस्मादद्भुतमेवाह कृती नारायणो रसम्.......(विश्वनाथ)
भरतमुनि के अनुसार रस के स्थायी भाव और अनुभाव
स्थायी भाव | अनुभाव |
---|---|
रतिः | तामभिनयेत स्मितवदन मधुरकथन-भूक्षेप-कटाक्षादिभिरनभावैः |
हासः | तमभिनयेत्-पूर्वोक्तैर्हसितादिभिरनुभावैः |
शोकः | तस्यास्त्रपात-परिदेवित-विलपित वैवण्र्य-स्वरभेद स्वस्तगात्रता-भूमिपतन-सस्वनरुदित-आक्रन्दित-दीर्घनिःश्वसिति जडता-उन्माद मोह, मरणाभिरनुभावैरभिनयः प्रयोक्तव्यः |
क्रोधः | अस्य विकृष्टनासापुट उद्वृत्तनयन सन्दष्टोष्ठपुट-गण्डस्फुरणादिभिरनुभावैरभिनयः प्रयोक्तव्यः |
उत्साहः | तस्य धैर्य-शौर्य त्याग वैशारद्यादिभिरनुभावैरभिनयः प्रयोक्तव्यः |
भयम् | तस्यप्रकम्पितकरचरण-हृदयकम्पन-स्तम्भ मुखशोष जिवापरलेहन-स्वेदवेपथु त्रास-परित्राणान्वेषण-धावन उत्कृष्टादिभिरनुभावरभिनयः प्रयोक्तव्यः |
जुगुप्साः | तस्याः सर्वांगसङ कोच निष्ठीवन मुखविणन हृल्लेखादिभिरनुभावर भिनयः प्रयोक्तव्यः |
विस्मयः | तस्य नयनविस्तार अनिमेषप्रेक्षित भूक्षेप रोमहर्षण-शिरःकम्प-साधुवादादि भिरनुभावैरभिनयःप्रयोक्तव्यः |
1. श्रृंगार रसः
इस रस को रीतिकारों ने ‘रसराज' की संज्ञा दी है; संसार में जो कुछ विव उज्ज्वल और दर्शनीय है, वह इसके भीतर समाविष्ट हो सकता है। हिन्दी के रीतिकार केशव ने भी इसे रसों का नायक कहा है। इसका मूल भाव रति अथवा काम, जो समस्त संसार में व्याप्त है। क्या पशु-पक्षी, लता-पादप सभी इस भाव से अनुप्राणित हैं। यही एक रस है, जिसमें अन्य विभिन्न रसों को समाहित करने की क्षमता है। कारण। इस रस में सभी संचारियों एवं सात्विकों को आत्मसात करने की सामथ्र्य होती है। संयोग और वियोग–ये दो इसके मुख्य पक्ष हुआ करते हैं।श्रृंगार रस के कुछ उदाहरण :
1.शून्यं वासगृहं विलोक्य शयनादुत्थाय किञ्चिच्छन ।
निंद्राव्याजमुपायगतस्य सुचिर निर्वण्य पत्युर्मुखम् ।
विर्खब्धं परिचुम्ब्य जातपुलकामालोक्य गण्डस्थली
लज्जानम्रमुखी प्रियेण हसता बाला चिरं चुम्बिता ।
2.निंद्राव्याजमुपायगतस्य सुचिर निर्वण्य पत्युर्मुखम् ।
विर्खब्धं परिचुम्ब्य जातपुलकामालोक्य गण्डस्थली
लज्जानम्रमुखी प्रियेण हसता बाला चिरं चुम्बिता ।
त्वं मुग्धाक्षि विनैव कन्चुलिकया धत्से मनोहारिणी
लक्ष्मीमित्याभिधायिनि प्रियतमे तद्वीटिकासंस्पृशि ।
शरूयोपान्तनिविष्ट सस्मितसखी नेत्रोत्सवानन्दितो
निर्यातः शनकैरलीकवचनोपन्यासमालीजनः ।
3.लक्ष्मीमित्याभिधायिनि प्रियतमे तद्वीटिकासंस्पृशि ।
शरूयोपान्तनिविष्ट सस्मितसखी नेत्रोत्सवानन्दितो
निर्यातः शनकैरलीकवचनोपन्यासमालीजनः ।
प्रस्थानं वलयैः कृतं प्रियसखैरस्त्रैरजस्रं गतं
धृत्या न क्षण्मासितं व्यवसितं चित्तेन गन्त परः ।
यातुं निश्चितचेतसि प्रियतमे सर्वेसमं प्रस्थिता
गन्तव्ये सति जीवित प्रियसुहृत्सार्थः किमु त्यज्यते ।।
4.धृत्या न क्षण्मासितं व्यवसितं चित्तेन गन्त परः ।
यातुं निश्चितचेतसि प्रियतमे सर्वेसमं प्रस्थिता
गन्तव्ये सति जीवित प्रियसुहृत्सार्थः किमु त्यज्यते ।।
अयं स रशनोत्कर्षी पीनस्तनविमर्दनः ।।
नाभ्यूरुजघनस्पर्शी नीवीविस्त्रंसनः करः ।।
नाभ्यूरुजघनस्पर्शी नीवीविस्त्रंसनः करः ।।
2. हास्य रस:
हास्य रस नवरसों के अंतर्गत स्वभावतः सबसे अधिक सुखात्मक प्रतीत होता है; परंतु भरत मुनि के अनुसार यह चार उपरसों की कोटि में आता है। इसकी उत्पत्ति श्रृंगार रस से मानी जाती है। इसका स्थायी भाव हास और विभाव आचार, व्यवहार, केशविन्यास, नाम तथा अर्थ आदि की विकृति है, जिसमें विकृतवशालंकार। धाष्टर्य, लौल्य, कलह, व्यंग्यदर्शन, दोषारोपण आदि की गणना की गई है। यह हास्य दो प्रकार का होता है - आत्मसमुत्थ और परसमुत्थ, जिसे क्रमशः आत्मस्थ और परस्थ कहा जाता है। यानी स्वयं पर हँसना और दूसरों पर हंसना।उदाहरणस्वरूप :
1.आकुञ्चय पाणिमशुचिं मम मूर्ध्निवेश्या
मन्त्राम्भसां प्रतिपदं पृषतैः ।।
पवित्रे तारस्वनं प्रथितथूकमदात् प्रहार
हा हा हतोऽहमिति रोदिति विष्णुशर्मा ।।
2.मन्त्राम्भसां प्रतिपदं पृषतैः ।।
पवित्रे तारस्वनं प्रथितथूकमदात् प्रहार
हा हा हतोऽहमिति रोदिति विष्णुशर्मा ।।
गुरोर्गिरः पञ्च दिनान्यधीत्य वेदान्तशास्त्राणि दिनत्रयं च ।
अमी समाघ्राय च तर्कवादान् समागताः कुक्कुटमिश्रपादाः ।।
अमी समाघ्राय च तर्कवादान् समागताः कुक्कुटमिश्रपादाः ।।
3. करुण रस:
'रीद्रातु करुणो रसः' कहकर इस रस की उत्पत्ति रौद्र रस से मानी गई है, जिसका स्थायी भाव शोक है और इसकी उत्पत्ति शापजन्य क्लेश-विनिपात इष्टजन विप्रयोग, विभवनाश, वध, बंधन, पलायन, अपघात आदि विभावों के संयोग से है। करुण रस के अभिनय में अश्रुपातन, परिवेदन अर्थात् विलाप, मुखशोषण, वैवण्र्य,त्रस्तगात्रता, निःश्वासा, स्मृतिविलोप आदि अनुभावों के प्रयोग का निर्देश किया गया है। फिर निर्वेद, ग्लानि, चिंता, औत्सुक्य, आवेग, मोह, श्रम, भय, विषाद, दैन्य, व्याधि,जड़ता, उन्माद, अपस्मार, त्रास, आलस्य, मरण, स्तंभ आदि को व्यभिचारी या संचारी भाव के रूप में परिगणित किया गया है। भवभूति की रचना 'उत्तररामचरितम्' करुण रस का सर्वोत्तम उदाहरण है।उदाहरणस्वरूप
1.हा मातस्त्वरिताऽसि कुत्र किमिदं हा देवता क्वाऽऽशिषः धिक्प्राणान् पतितोऽशनिहुंतवहस्तेऽङ्गेषुदग्धेदृशौ ।।
इत्थं घर्घरमध्यरुद्धकरुणाः पौराङ्गानानां गिरश्चित्रस्थानपि रोदयन्ति शतध कुर्वन्ति भित्तीरपि ।।
2.इत्थं घर्घरमध्यरुद्धकरुणाः पौराङ्गानानां गिरश्चित्रस्थानपि रोदयन्ति शतध कुर्वन्ति भित्तीरपि ।।
विपिने क्व जटानिबन्धानं तव चेदं क्व मनोहरं वपुः । अनयोर्घटना विधेः ननु खगेनशिरीषकर्तनम् ।।
4. रौद्र रस:
भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में श्रृंगार, रौद्र, वीर तथा बीभत्स इन चार रसों को ही प्रधान माना है। रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध और इसका रंग लाल माना। गया है। रौद्र रस के परिपाक के लिए क्रोध स्थायी की आस्वायता के निमित्त निम्नलिखित अवयवों की उपस्थिति अपेक्षित मानी गई है-(क) आलम्वन विभावः -शत्रु तथा विरोध पक्ष के व्यक्ति ।
(ख) उद्दीपन विभाव :- शत्रु द्वारा किए गए अनिष्ट कार्य-अधिक्षेप, अपमान, अपकार, कठोर वचनों का प्रयोग आदि।
(ग) अनुभाव: -मुख तथा नेत्रों का लाल होना अभंग दंत तथा ओष्ठ चर्बन कठोरभाषण, शस्त्र उठाना, गर्जन, तर्जन, विरोधियों को ललकारना आदि ।
(घ) व्यभिचारीभावः-मद, उग्रता, अमर्ष, चंचलता, उद्वेग, असूया, स्मृति, आवगे ।
उदाहरणस्वरूप
कृतमनुमतं दृष्टं वायैरिदं गुरुपातक
मनुजपशुभिर्निर्मर्यादैर्भवदुभिरुदायुधैः ।
नरकरिपुणा साधं सभीमकिरीटिना
मयमहमसृङ्नेदोमांसैः करोमि दिशां बलिम् ।।
मनुजपशुभिर्निर्मर्यादैर्भवदुभिरुदायुधैः ।
नरकरिपुणा साधं सभीमकिरीटिना
मयमहमसृङ्नेदोमांसैः करोमि दिशां बलिम् ।।
5. वीर रस:
श्रृंगार के साथ स्पर्धा करनेवाला वीर रस ही है। इसी से अद्भुत रस की उत्पत्ति बतलायी गई है। इसका रंग स्वर्ण अथवा गौर माना गया है। इसका स्थायी भाव उत्साह है। सामान्यतया, रौद्र और वीर रसों की पहचान में कठिनाई होती है। दोनों के आलम्वन शत्रु तथा उद्दीपन उनकी चेष्टायें हैं। कभी-कभी रौद्रता में वीरत्व और वीरता में रौद्र तत्त्व का आभास मिलता है, लेकिन रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध और वीर का उत्साह होता है। क्रोध में प्रमोदप्रतिकूल्य अर्थात् प्रमाता के आनंद को विच्छिन्न करने की ताकत होती है, जबकि उत्साह में एक प्रकार का उल्लास होता है। क्रोध में शत्रु विनाश और प्रतिशोध की भावना होती है; परंतु उत्साह में धैर्य एवं उदारता पाए जाते है।उदाहरणतय
क्षुद्राः संत्रासमेते विजहत हरयः क्षुण्णशक्रेभकुम्भा
युष्मदेहेषु लज्जां दधाति परममीसायका निष्पतन्तः।।
सौमित्रे! तिष्ठ पात्रं त्वमसि नहि रुषां नन्वहंमेघनादः।
किञ्चिद्भूभङ्गलालानियमितजलधि राममन्वेषयामि ।
युष्मदेहेषु लज्जां दधाति परममीसायका निष्पतन्तः।।
सौमित्रे! तिष्ठ पात्रं त्वमसि नहि रुषां नन्वहंमेघनादः।
किञ्चिद्भूभङ्गलालानियमितजलधि राममन्वेषयामि ।
6. भयानक रसः
भय का परितोष अथवा संपूर्ण इन्द्रियों का विक्षोभ ही भयानक रस है। भयोत्पादक वस्तुओं के दर्शन अथवा श्रवण से शत्रु आदि के विद्रोहपूर्ण आचरण से जब हृदयस्थ भय स्थायी भाव परिपुष्ट होकर आस्वाद्य बनता है, तब भयानक रस होता है। इस रस का रंग काला माना गया है।उदाहरणस्वरूपः
ग्रीवाभङ्गाभिराम मुहुरनुपतति स्यन्दने बधदृष्टिः
पश्चाद्र्धन प्रविष्टः शरपतनभयाद् भूयसा पूर्वकायम् ।
दभैरवलीढः श्रमविवृतमुखभ्रंशिभिः कीर्णवत्र्मा
पश्योदग्रप्लुतत्वाद्वियति बहुतरं स्तोकमुव्य प्रयाति ।।
पश्चाद्र्धन प्रविष्टः शरपतनभयाद् भूयसा पूर्वकायम् ।
दभैरवलीढः श्रमविवृतमुखभ्रंशिभिः कीर्णवत्र्मा
पश्योदग्रप्लुतत्वाद्वियति बहुतरं स्तोकमुव्य प्रयाति ।।
7. वीभत्स रस:
यह भयानक रस का उत्पादक है। इसका स्थायी भाव 'जुगुप्सा' यानी 'घृणा' है। इसका रंग नीला माना गया है। भरतमुनि ने इसकी उत्पत्ति अहदय, प्रियवेक्ष, अनिष्ट श्रवण, अनिष्ट दर्शन और अनिष्ट परिकीर्तन आदि विभावों से बताई है। संचारी भावों में अपस्मार, वेग, मोह, व्याधि, मरणादि की गणना की गई है।उदाहरणस्वरूप :
उत्कृत्योकृत्य कृत्तिं प्रथममथ पृथूत्सेधभूयांसि मां सा
न्यंसस्फिक्पृष्ठपिण्डयाद्यवयसुलभान्युग्रपूतीनि जग्ध्वा ।
आर्तिः र्प्यस्तनेत्रः प्रकटितदशः प्रेतरङ्कः करका दङ्
कस्थादस्थिसंत्यं स्थपुटगतमपि क्रव्यमव्यग्रमति ।।
न्यंसस्फिक्पृष्ठपिण्डयाद्यवयसुलभान्युग्रपूतीनि जग्ध्वा ।
आर्तिः र्प्यस्तनेत्रः प्रकटितदशः प्रेतरङ्कः करका दङ्
कस्थादस्थिसंत्यं स्थपुटगतमपि क्रव्यमव्यग्रमति ।।
8. अद्भुत रस:
विस्मय की सम्यक समृद्धि अथवा संपूर्ण इन्द्रियों की तटस्थता अद्भुत रस है। कहने का तात्पर्य यह है कि जब किसी रचना में विस्मय स्थायी भाव इस प्रकार पूर्णतया प्रस्फुट हो कि संपूर्ण इन्द्रियाँ उससे अभिभावित होकर निश्चेष्ट बन जाये, तब वहां अद्भुत रस की निष्पत्ति होती है। अलौकिकता से युक्त वाक्य, शील, कर्म एवं रूप अद्भुत रस के आलंबन विभाव है। अलौकिकता के गुणों का वर्णन उद्दीपन विभाव हैं। आँखे फाड़ना, टकटकी लगाना, रोमांच, आँसू, स्वेद, हर्ष, साधुवाद देना, उपहार, हा हा करना, अंगों का घुमाना, कंपित होना, गदगद हो वचन बोलना, उत्कण्ठित होना आदि इसके अनुभाव हैं। वितर्क, हर्ष, आवेग, भान्ति, चिता, चपलता, जड़ता, औत्सुक्य आदि संचारी भाव हैं।उदाहरणतः
चित्रंमहानेष बतावतारः क्व कान्तिरेषाऽभिनवैव भगिः ।
लोकोत्तरं धैर्यमहो प्रभावः काऽप्याकृतिनूतन एष सर्गः ।।
लोकोत्तरं धैर्यमहो प्रभावः काऽप्याकृतिनूतन एष सर्गः ।।
9. शांत रसः
शांतोऽनवमो रसः' कहकर मम्मट ने इसकी नौवें रस के रूप में इस की गिनती की है। इसकी प्रकृति उत्तम, स्थायी भाव शम और वर्ण कूलेंदु है । संसार की अनित्यतता, वस्तुजगत् की निस्सारता और परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान इसके आलंबन हैं। भगवान के पवित्र आश्रय, तीर्थ स्थान, रम्य एकांत वन तथा महापुरुषों का सत्संग उद्दीपन हैं। अनुभाव रोमांचादि और संचारी भाव निर्वेद, हर्ष, स्मरण, उन्माद तथा प्राणियों पर दया आदि है। आध्यात्मिकता के कारण उत्पन्न हर्ष और संतोषजनित रस ही शांत रस कहलाता है।उदाहरणस्वरूपः
अहो वा हारे वा कुसुमशयने वा दृषदि वा ।
मणी वा लोष्ठे वा बलवति रिपौ वा सुहृदि वा। ।
तणे वा स्त्रैणे वा ममसमदृशौ यान्ति दिवसाः
क्वचित पुण्यारण्ये शिव शिव शिवेति प्रलपतः ।।
मणी वा लोष्ठे वा बलवति रिपौ वा सुहृदि वा। ।
तणे वा स्त्रैणे वा ममसमदृशौ यान्ति दिवसाः
क्वचित पुण्यारण्ये शिव शिव शिवेति प्रलपतः ।।
10. वात्सल्य रस:
स्फुटं चमत्कारितया वत्सलं च रसं विदुः ।
स्थायी वत्सलतास्नेहः पुत्रायलम्बनं मतम् ।।
उद्दीपनानि तच्चेष्टा विद्याशौर्यदयापदः।
आलिंगनांगसंस्पर्शशिरश्चुम्बनमीक्षणम् ।।
पुलकानन्दवाष्पाद्या अनुभावाः प्रकीर्तिताः ।
संचारिणोऽनिष्टशङ काहर्षगर्वादयो मताः ।।
इस रस का स्थायी भाव ‘स्नेह' होता है। पुत्रादि इसका आलम्बन और उसकी चेष्टा तथा विद्या, शूरता, दया आदि उद्दीपन विभाव होते हैं। आलिंगन, अंगस्पर्श, सिर चूमना, देखना, रोमांच, आनंदाश्रु आदि इसके अनुभाव होते हैं। अनिष्ट की आशंका, हष, व आदि संचारी होते हैं।स्थायी वत्सलतास्नेहः पुत्रायलम्बनं मतम् ।।
उद्दीपनानि तच्चेष्टा विद्याशौर्यदयापदः।
आलिंगनांगसंस्पर्शशिरश्चुम्बनमीक्षणम् ।।
पुलकानन्दवाष्पाद्या अनुभावाः प्रकीर्तिताः ।
संचारिणोऽनिष्टशङ काहर्षगर्वादयो मताः ।।
उदाहरणस्वरूप :
यदाह धात्र्या प्रथमोदितं वचो ययौ तदीयामवलम्व्य चांगुलिम् ।
अभूच्च नम्रः प्रणिपातशिक्षया पितुर्मुदं तेन ततान सोऽर्भकः ।।
अभूच्च नम्रः प्रणिपातशिक्षया पितुर्मुदं तेन ततान सोऽर्भकः ।।